Sunday 9 September 2012

सरकारी विज्ञापन का लुटेरा अखबार


श्रम कानूनों की उड़ा रहा धज्जियाँ

कम ही लोगों को जानकारी होगी कि रांची से झारखंड जागरण नाम का एक दैनिक अखबार पिछले कई वर्षों से प्रकाशित हो रहा जिसे झारखंड,बिहार और उत्तर प्रदेश की सरकारों के लाखों के विज्ञापन  प्रतिमाह मिलते हैं. यह अखबार सिर्फ सरकारी दफ्तरों के लिए छपता है. बमुश्किल डेढ़-दो हज़ार. तीनो राज्यों में वितरण के लिए और केंद्र सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रालय से जुड़े विभागों के लिए इतना काफी होता है. यह बात अलग है कि एबीसी के खाते में इसकी प्रसार संख्या राष्ट्रिय अखबारों के समकक्ष दिखाया गया है और इसका डीएवीपी रेट उन्हीं के सामान है जबकि प्रतिमाह का खर्च मात्र एक से डेढ़ लाख. हर राज्य से तीन से पांच लाख यानि महीने में करीब 10 -15 लाख का शुद्ध मुनाफा हो जाता है. 
इसके मालिक सह संपादक सह प्रकाशक हैं चंद्रप्रकाश. किसी समय  एक राष्ट्रीय अखबार के संपादक रह चुके हैं. इसके बाद लखनऊ स्थित अपने आवास के पते पर एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी रजिस्टर्ड कराया. दिल्ली से एक साप्ताहिक पत्रिका हर शनिवार का प्रकाशन शुरू किया. इसके संपादक, प्रकाशक, मुद्रक, कॉपी राईटर, विज्ञापन एवं प्रसार प्रबंधक सबकुछ अकेले थे. कंप्यूटर का ज्यादा ज्ञान नहीं था वरना पेजिनेटर भी खुद ही रहते. यही एक स्टाफ रखना पड़ा था. राजधानी की भीड़ में उनकी दाल नहीं गली और वे पूरी तरह फ्लॉप हो गए. इसके बाद उन्हें पता चला कि पूर्व झामुमो नेता सूरज मंडल ने एक अखबार निकाला था जो कई वर्षों से बंद पड़ा है. उन्होंने कानपुर के किसी उद्योगपति को पटाया और सूरज मंडल से बात कर उसे खरीद लिया. तीन यूनिट मशीन के जरिये १२ पेज का वह अखबार चंद्रप्रकाश जी के लिए कामधेनु बना हुआ है. अखबार में मात्र ६ स्टाफ हैं. दो रिपोर्टर, दो पेजिनेटर और दो मशीनमैन. उनका अधिकतम वेतनमान सरकार की  न्यूनतम मजदूरी से भी कम है. कुछ नियमित रूप से खटने वाले  दैनिक मजदूर भी हैं. अखबार इतना अशुद्ध निकलता है कि शायद ही कोई विश्वास करे कि इसका प्रकाशन किसी राष्ट्रीय अखबार के पूर्व संपादक कर रहे हैं. दरअसल चंद्रप्रकाश जी ने इसे अपना चारागाह बना रखा है. रांची में वे महीने में चार-पांच दिन के लिए आते हैं. उसमें भी अपने दफ्तर में कम बैठते हैं ज्यादा समय सरकारी विभागों में गेटिंग-सेटिंग में निकलता है. पैसा बटोर कर पटना होते हुए बाल-बच्चों के पास लखनऊ चले जाते हैं. प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी चलाते हैं लेकिन श्रम कानूनों की कोई परवाह नहीं करते. किसी का पीएफ़ कटता है न हाजिरी बनती है. वेतन भी चार-पांच महीने पर मिलता है. नकद. न पे-स्लिप न वाउचर. 
सुमन कुकरेजा नामक एक महिला पत्रकार करीब दो वर्षों तक मुख्य संवाददाता के रूप में कार्यरत रही. उसे एक माह का भी वेतन नहीं दिया गया. आजिज आकर उसने नौकरी छोड़ डी और वेतन के लिए लीगल नोटिस भेजा तो चंद्रप्रकाश जी ने जवाब में इस नाम के किसी कर्मी के होने से ही नकार दिया. जबकि सुमन कुकरेजा के समाचार,रिपोर्ट और फीचर इस अवधि में नियमित रूप से उनके नाम से छपे हैं.  
तो यह हाल है समाज को दिशा देने वाले राष्ट्रीय अखबार के पूर्व संपादक का. शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठानेवाला स्वयं सबसे बड़ा शोषक और सरकारी राशि का लुटेरा बन बैठा है. 

--नारायण